Saturday, August 29, 2009

हरिवंश राय बच्चनः जीवन परिचय

बच्चन व्यक्तिवादी गीत कविता या हालावादी काव्य के अग्रणी कवि थे
‘मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन मेरा परिचय’, इन पंक्तियों के लेखक हरिवंश राय का जन्म 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद के नज़दीक प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव पट्टी में हुआ.
घर में प्यार से उन्हें ‘बच्चन’ कह कर पुकारा जाता था. आगे चल कर यही उपनाम विश्व भर में प्रसिद्ध हुआ.

बच्चन की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा गाँव की पाठशाला में हुई. उच्च शिक्षा के लिए वे इलाहाबाद और फिर कैम्ब्रिज गए जहाँ से उन्होंने अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर शोध किया.

हरिवंश राय ने 1941 से 1952 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाया.

वर्ष 1955 में कैम्ब्रिज से वापस आने के बाद वे भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त हुए.

1926 में हरिवंश राय की शादी श्यामा से हुई. टीबी की लंबी बीमारी के बाद 1936 में श्यामा का देहांत हो गया. 1941 में बच्चन ने तेजी सूरी से शादी की.

ये दो घटनाएँ बच्चन के जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण थी जो उनकी कविताओं में भी जगह पाती रही है.

1939 में प्रकाशित ‘ एकांत संगीत’ की ये पंक्तियाँ उनके निजी जीवन की ओर ही इशारा करती हैं- कितना अकेला आज मैं, संघर्ष में टूटा हुआ, दुर्भाग्य से लूटा हुआ, परिवार से लूटा हुआ, किंतु अकेला आज मैं.

हालावादी कवि

बच्चन व्यक्तिवादी गीत कविता या हालावादी काव्य के अग्रणी कवि थे.



बच्चन को उनकी मधुशाला ने खूब प्रसिद्धि दिलाई

उमर ख़ैय्याम की रूबाइयों से प्रेरित 1935 में छपी उनकी मधुशाला ने बच्चन को खूब प्रसिद्धि दिलाई. आज भी मधुशाला पाठकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय है.

अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाओं में इस काव्य का अनुवाद हुआ.

इसके अतिरिक्त मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, खादि के फूल, सूत की माला, मिलन यामिनी, बुद्ध और नाच घर, चार खेमे चौंसठ खूंटे, दो चट्टानें जैसी काव्य की रचना बच्चन ने की है.

1966 में वे राज्य सभा के सदस्य मनोनीत हुए.

'दो चट्टानें' के लिए 1968 में बच्चन को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. साहित्य में योगदान के लिए प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार का यश भारती सम्मान, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी वे नवाज़े गए.

बच्चन को 1976 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया.

बच्चन की परवर्ती रचनाओं का स्वर और उसकी भंगिमा में स्पष्ट परिवर्तन दिखाई पड़ता है.

सूत की माला, चार खेमे चौंसठ खूंटे आदि रचनाओं में वे ‘हालावाद’ से निकल कर बाहरी दुनिया के दुख-दर्द से साक्षात्कार करते हैं.

चार खण्डों में प्रकाशित बच्चन की आत्मकथा- ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान तक’ हिन्दी साहित्य जगत की अमूल्य निधि मानी जाती है.

बच्चन ने उमर ख़्य्याम की रुबाइयों, सुमित्रा नंदन पंत की कविताओं, नेहरू के राजनीतिक जीवन पर भी किताबें लिखी. उन्होंने शेक्सपियर के नाटकों का भी अनुवाद किया.

हरिवंश राय बच्चन का 95 वर्ष की आयु में 18 जनवरी, 2003 को मुंबई में देहांत हो गया.

अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फ़िल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन और उद्योगपति अजिताभ बच्चन उनके पुत्र हैं.

Thursday, August 27, 2009

वेब- पत्रकारिता और हिंदी

वेब- पत्रकारिता का आशय
वेब पत्रकारिता को हम इंटरनेट पत्रकारिता, ऑनलाइन पत्रकारिता, सायबर पत्रकारिता आदि नाम से जानते हैं . जैसा कि वेब पत्रकारिता नाम से स्पष्ट है यह कंप्यूटर और इंटरनेट के सहारे संचालित ऐसी पत्रकारिता है जिसकी पहुँच किसी एक पाठक, एक गाँव, एक प्रखंड, एक प्रदेश, एक देश तक नहीं बल्कि समूचा विश्व है और जो डिजिटल तंरगों के माध्यम से प्रदर्शित होती है . प्रिंट मीडिया से यह इस रूप में भी भिन्न है क्योंकि इसके पाठकों की संख्या को परिसीमित नहीं किया जा सकता . इसकी उपलब्धता भी सार्वत्रिक है . इसके लिए मात्र इंटरनेट और कंप्यूटर, लैपटॉप, पॉमटॉप या अब मोबाईल की ही जरूरत होती है . इंटरनेट के ऐसा माध्यम से वेब-मीडिया सर्वव्यापकता को भी चरितार्थ करती है जिसमें ख़बरें दिन के चौबीसों घंटे और हफ़्ते के सातों दिन उपलब्ध रहती हैं . वेब पत्रकारिता की सबसे खासियत है उसका वेब यानी तंरगों पर घर होना . अर्थात् इसमें उपलब्ध किसी दैनिक, साप्ताहिक, मासिक पत्र-पत्रिका को सुरक्षित रखने के लिए किसी किसी आलमीरा या लायब्रेरी की जरूरत नहीं होती . समाचार पत्रों और टेलिविज़न की तुलना में इंटरनेट पत्रकारिता की उम्र बहुत कम है लेकिन उसका विस्तार तेज़ी से हुआ है . वाले दिनों में इसका विस्तार बेतार पत्रकारिता यानी वायरलेस पत्रकारिता में होगा जिसकी पहल कुछ मोबाइल कंपनियों द्वारा शुरू भी की जा चुकी है . वेब मीडिया या ऑनलाइन जर्नलिज्म परंपरागत पत्रकारिता से इन अर्थों में भिन्न है उसका सारा कारोबार ऑनलाइन यानी रियल टाइम होता है . ऑनलाइन पत्रकारिता में समय की भारी बचत होती है क्योंकि इसमें समाचार या पाठ्य सामग्री निरंतर अपडेट होती रहती है . इसमें एक साथ टेलिग्राफ़, टेलिविजन, टेलिटाइप और रेडियो आदि की तकनीकी दक्षता का उपयोग सम्भव होता है . आर्काइव में पुरानी चीजें यथा मुद्रण सामग्री, फिल्म, आडियो जमा होती रहती हैं जिसे जब कभी सुविधानुसार पढ़ा जा सकता है . ऑनलाइन पत्रकारिता में मल्टीमीडिया का प्रयोग होता है जिसमें, टैक्स्ट, ग्राफिक्स, ध्वनि, संगीत, गतिमान वीडियो, थ्री-डी एनीमेशन, रेडियो ब्रोडकास्टिंग, टीव्ही टेलीकास्टिंग प्रमुख हैं . और यह सब ऑनलाइन होता है, यहाँ तक कि पाठकीय प्रतिक्रिया भी . कहने का वेब मीडिया में मतलब प्रस्तुतिकरण और प्रतिक्रियात्मक गतिविधि एवं सब कुछ ऑनलाइन (एट ए टाइम) होता है . परंपरागत प्रिंट मीडिया एट ए टाइम संपूर्ण संदर्भ पाठकों को उपलब्ध नहीं करा सकता किन्तु ऑनलाइन पत्रकारिता में वह भी संभव है – मात्र एक हाइपरलिंक के द्वारा .


इंटरनेट पत्रकारिता के टूल्स
वेब पत्रकारिता प्रिंट और इलेक्ट्रानिक माध्यम की पत्रकारिता से भिन्न है . वेब पत्रकारिता के लिए लेखन की समस्त दक्षता के साथ-साथ कंप्यूटर और इंटरनेट की बुनियादी ज्ञान के अलावा कुछ आवश्यक सॉफ्टवेयरों के संचालन में प्रवीणता भी आवश्यक होता है जैसेः-


1. प्रिंटिग एवं पब्लिशिंग टूल्स - पेजमेकर, क्वार्क एक्सप्रेस, एमएमऑफिस आदि .
2. ग्राफिक टूल्स - कोरल ड्रा, एनिमेशन, फ्लैश, एडोब फोटोशॉप आदि .
3. सामग्री प्रबंधन टूल्स – एचटीएमएल, फ्रंटपेज, ड्रीमवीवर, जूमला, द्रुपल, लेन्या, मेम्बू, प्लोन, सिल्वा, स्लेस, ब्लॉग, पोडकॉस्ट, यू ट्यूब आदि.
4. मल्टीमीडिया टूल्स- विंडो मीडिया प्लेयर, रियल प्लेयर, आदि .
5. अन्य टूल्स- ई-मेलिंग, सर्च इंजन, आरएसएस फीड, विकि टेकनीक, मैसेन्जर, विडियो कांफ्रेसिंग, चेंटिंग, डिस्कशन फोरम .


वेब पत्रकारिता में सामग्री
भारत के इंटरनेट समाचार पत्र मुख्यतः अपने मुद्रित संस्करणों की सामग्री यथा लिखित सामग्री और फोटो ही उपयोग लाते हैं . ये समाचार पत्र एक्सक्लूसिव समाचार और फीचर की तैयारी इंटरनेट संस्करण के लिए बहुधा नहीं किया करते हैं . ऑनलाइन संस्करणों में मुद्रित संस्करणों के सभी समाचार, फीचर एवं फोटोग्राफ़ भी उपयोग नहीं किये जा रहे हैं . लगभग 60 प्रतिशत समाचार और दर्जन भर फोटोग्राफ़ के साथ प्रतिदिन का इंटरनेट संस्करण क्रियाशील बनाये रखने की प्रवृति भी देखने को मिल रही है .


ऑनलाइन समाचार पत्रों का ले आउट मुद्रित संस्करणों की तरह नहीं होता है जबकि मुद्रित संस्करणों की सामग्री 8 कॉलमों में होती हैं . ऑनलाइन पत्र की सामग्री कई रूपो में होती हैं . इसमें एक मुख्य पृष्ठ होता है जो कंप्यूटर के मॉनीटर में प्रदर्शित होता है जहाँ विविध खंडों में सामग्री के मुख्य शीर्षक हुआ करते हैं . इसके अलावा खास समाचारों और मुख्य विज्ञापनों को भी मुख्य पृष्ठ में रखा जाता है जिन्हें क्लिक करने पर उस समाचार, फोटो, फीचर, ध्वनि या दृश्य का लिंक किया हुआ पृष्ठ खुलता है और तब पाठक उसे विस्तृत रूप में पढ़, देख या सुन सकता है . समाचार सामग्री को वर्गीकृत करने वाले मुख्य शीर्षकों का समूह अधिकांशतः हर पृष्ठों में हुआ करते हैं . ये शीर्षक समाचारों की स्थानिकता, प्रकृति आदि के आधार पर हुआ करते हैं जैसे विश्व, देश, क्षेत्रीय, शहर . या फिर राजनीति, समाज, खेल, स्वास्थ्य, मनोरंजन, लोकरूचि, प्रौद्योगिकी आदि . ये सभी अन्य पृष्ठ या वेबसाइट से लिंक्ड रहते हैं . इस तरह से एक पाठक केवल अपनी इच्छानुसार ही संबंधित सामग्री का उपयोग कर सकता है . पाठक एक ई-मेल या संबंधित साइट में ही उपलब्ध प्रतिक्रिया देने की तकनीकी सुविधा का उपयोग कर सकता है . वांछित विज्ञापन के बारे में विस्तृत जानकारी भी पाठक उसी समय जान सकता है जबकि एक मुद्रित संस्करण में यह असंभव होता है . इस तरह से ऑनलाइन संस्करणों में ऑनलाइन शापिंग का भी रास्ता है . मुद्रित संस्करणों में पृष्ठों की संख्या नियत और सीमित हुआ करती है जबकि ऑनलाइन संस्करणों में लेखन सामग्री और ग्राफिक्स की सीमा नहीं हुआ करती . ऑनलाइन पत्रों की एक विशेषता है कि वहाँ उसके पाठकों की सख्या यानी रीड़रशीप उसी क्षण जानी जा सकती है .


वेब-पत्रकारिता का सामान्य वर्गीकरण
इंटरनेट अब दूरस्थ पाठकों के लिए समाचार प्राप्ति का सबसे खास माध्यम बन चुका है . इधर इंटरनेट आधारित पत्र-पत्रिकाओं की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है . इसमें दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक सभी तरह की आवृत्तियों वाले समाचार पत्र और पत्रिकायें शामिल हैं . विषय वस्तु की दृष्टि से इन्हें हम समाचार प्रधान, शैक्षिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि केंद्रित मान सकते हैं . यद्यपि इंटरनेट पर ऑनलाइन सुविधा के कारण स्थानीयता का कोई मतलब नहीं रहा है किन्तु समाचारों की महत्ता और प्रांसगिकता के आधार पर वर्गीकरण करें तो ऑनलाइन पत्रकारिता को भी हम स्थानीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर देख सकते हैं . जैसे भोपाल की www. Com को स्थानीय, नई दुनिया डॉट कॉम, या दैनिक छत्तीसगढ़ डॉट कॉम को प्रादेशिक, नवभारत टाइम्स डॉट कॉम को राष्ट्रीय और बीबीसी डॉट कॉम, डॉट काम को अंतरराष्ट्रीय स्तर की ऑनलाइन समाचार पत्र मान सकते हैं .
ऑनलाइन पत्रकारिता को सामग्री के आधार पर हम 3 तरह से देख सकते हैः-


1. ऐसे समाचार जिनके प्रिंट संस्करण की आंशिक सामग्री ही ऑनलाइन हो . इस श्रेणी में हम नई दुनिया, दैनिक भास्कर, नवभारत, हिंदुस्तान टाइम्स आदि को रख सकते हैं .


2. ऐसे समाचार पत्र जिनके प्रिंट और इंटरनेट संस्करण दोनों की सामग्रियों में काफी समान हो .


3. ऐसे समाचार जिनका इंटरनेट संस्करण प्रिंट संस्करण से भिन्न हो . इसका उदाहरण टाइम्स ऑफ़ इंडिया है . इस समाचार पत्र के इंटरनेट संस्करण में पृथक समाचार होते हैं जो एक ई-पेपर के माध्यम से ऑनलाइन होता है .


4. ऐसे पोर्टल या न्यूज साइट जो केवल इंटरनेट पर ही संचालित हैं . इनमें प्रभासाक्षी डॉट कॉम आदि को गिना सकते हैं .

वेब-पत्रकारिता का आदिकाल
दुनिया जिस तरह से प्रौद्योगिकी केंद्रित होती जा रही है और जिस तरह से विश्वमानव का रूझान साफ़ झलक रहा है उसे देखकर कहा जा सकता है कि भविष्य में उसकी दिनचर्चा को कंप्यूटर और इंटरनेट जीवन-साथी की तरह संचालित करेंगे, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सूचना और संचार प्रिय दुनिया भविष्य में इंटरनेट आधारित पत्रकारिता पर अधिक निर्भर और विश्वास करेगी . पश्चिमी देश के परिदृश्य यही सिद्ध करते हैं जहाँ प्रिंट मीडिया का स्थान धीरे-धीरे इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ले लिया और अब वहाँ वेब-मीडिया या ऑनलाइन मीडिया का बोलबाला है . 1970 – 1980 के दशक में जब कंप्यूटर का व्यापक प्रयोग होने लगा तब समाचार पत्र के उत्पादन विधि में परिवर्तन आने लगा . तब यह किसे पता था कि यही कंप्यूटर एक दिन ऑनलाइन समाचार पत्र का जगह ले लेगा . 1980 में अमेरिका के न्यूयार्क टाइम्स, वॉल स्ट्रीट जनरल, डाव जोन्स ने अपने-अपने प्रिंट संस्करणों के साथ-साथ समाचारों का ऑनलाइन डेटाबेस रखना भी प्रारंभ किया . वेब-पत्रकारिता या ऑनलाइन पत्रकारिता को तब और गति मिली जब 1981 में टेंडी द्वारा लैटटॉप कंप्यूटर का विकास हुआ . इससे किसी एक जगह से ही समाचार संपादन, प्रेषण करने की समस्या जाती रही .


ऑनलाइन समाचार पत्रों के प्रचलन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया 1983 में जब अमेरिका के Knight-Ridder newspaper group ने AT&T के साथ मिलकर लोगों की माँग पर प्रायोगिक तौर पर उनके कंप्यूटर और टेलिविजन पर समाचार उपलब्ध कराने लगे . 90 के दशक आते-आते संवाददाता कंप्यूटर, मोडेम, इंटरनेट या सैटेलाइट का प्रयोग कर विश्व से कहीं भी तत्क्षण समाचार भेजने और प्रकाशित करने में सक्षम हो गये . 1998 में विश्व के लगभग 50 मिलियन लोग 40,000 नेटवर्क के माध्यम प्रतिदिन इंटरनेट का उपयोग किया करते थे . उनमें एक बड़ी संख्या में लोग समाचार, समाचार पत्र, समाचार एजेंसी और पत्रिकाएं विश्व को जानने समझने के लिए इंटरनेट पर तलाशते थे . एकमात्र अमेरिका की टाइम मैग्जीन ही ऐसी थी जिसने 1994 में इंटरनेट पर पैर रखा . उसके बाद 450 पत्रिकाओं और समाचार पत्र प्रकाशनों ने इंटरनेट में स्वयं को प्रतिष्ठित किया . तब भी इंटरनेट पर कोई समाचार एंजेसी कार्यरत नहीं थी किन्तु एक अनुमान के अनुसार दिसम्बर 1998 के अंत तक 4700 मुद्रित समाचार पत्र इंटरनेट पर थे .


भारत में वेब-पत्रकारिता का विकास
जहाँ तक भारत में वेब-पत्रकारिता का सवाल है उसे मात्र 10 वर्ष हुए हैं . ये 10 वर्ष कहने भर को है दरअसल भारती की वेब-पत्रकारिता अभी शिशु अवस्था में है और इसके पीछे दरअसल भारत इंटरनेट की उपलब्धता, तकनीकी ज्ञान और रूझान का अभाव, अंगरेज़ी की अनिवार्यता, नेट संस्करणों के प्रति पाठकों में संस्कार और रूचि का विकसित न होना तथा आम पाठकों की क्रय शक्ति भी है . भारत में इंटरनेट की सुविधा 1990 के मध्य में मिलने लगी . भारत में वेब-पत्रकारिता के चैन्नई का ‘द हिन्दू’ पहला भारतीय अख़बार है जिसका इंटरनेट संस्करण 1995 को जारी हुआ . इसके तीन साल के भीतर अर्थात् 1998 तक लगभग 48 समाचार पत्र ऑनलाइन हो चुके थे . ये समाचार पत्र केवल अंगरेज़ी में नहीं अपितु अन्य भारतीय भाषा जैसे हिंदी, मराठी, मलयालम, तमिल, गुजराती भाषा में थे . इस अनुक्रम में ब्लिट्ज, इंडिया टूडे, आउटलुक और द वीक भी इंटरनेट पर ऑनलाइन हो चुकी थीं . ऑनलाइन भारतीय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की पाठकीयता भारत से कहीं अधिक अमेरिका सहित अन्य देशों में है जहाँ भारतीय मूल के प्रवासी लोग रहते हैं या अस्थायी तौर पर रोजगार में संलग्न हैं .


एक शोध के अनुसार (किरण ठाकुर, पुणे विश्वविद्यालय के रिसर्च पेपर ‘भारत में इंटरनेट पत्रकारिता’ के अनुसार) दिसम्बर 1997 तक कुल पंजीकृत 4719 समाचार पत्रों के 1 प्रतिशत से कम ऑनलाइन भी हो चुके थे . भाषागत आधार पर ऑनलाइन पत्र-पत्रिकाओं की संख्या इस प्रकार थी –
भाषा वार कुल पंजीकृत और ऑनलाइन पत्रों की संख्या का विवरण


01. अंगरेज़ी - 338 -19

02 हिंदी -2118 - 05

03. मलयालम -209 - 05

04. गुजराती -99 - 04

05. बंगाली -93 - 03

06. कन्नड - 279 - 03

07. तेलुगु - 126 - 03

08 ऊर्दू -495 - 02

09. मराठी -283 - 01


इसका मतलब है कि शुरूआती दौर में अन्य भाषाओं यथा असमिया, मणिपुरी, पंजाबी, उडिया, संस्कृत, सिन्धी आदि भाषा के कोई भी ऑनलाइन संस्करण नहीं थे . आकाशवाणी ने 2 मई 1996 को ऑनलाइन सूचना सेवा का अपना प्रायोगिक संस्करण को अंतरजाल पर उतारा था . अब 2006 के अतिंम दिनों में हम देखते हैं कि देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित समाचार पत्रों एवं टिलीविजन चैनलों के पास उनका अपना अंतरजाल संस्करण भी हैं जिसके माध्यम से वे पाठकों को ऑनलाइन समाचार उपलब्ध करा रहे हैं . एक उपलब्ध आंकडा के अनुसार वर्तमान में 14 ई-जीन, 85 न्यूज पेपर, 73 ऑनलाइन न्यूज, 92 पत्रिकाएं, 9 जनरल, 10 टीव्ही न्यूज एवं 8 न्यूज एजेंसी इंटरनेट पर सक्रिय हैं .


यदि हम हिंदी भाषा पर केंद्रित हो कर सोचें तो ऑनलाइन पत्र और पत्रकारिता की स्थिति दयनीय दिख सकती है और इस दयनीयता की जड़ में हिंदी आधारित इंटरनेट और वेब तकनीक ज्ञान, तंत्र व शिक्षा का विलम्ब से विकास रहा है .



- हिंदी की ऑनलाइन पत्रकारिता का वर्तमान परिदृश्य –



नेट पर हिंदी अखबार
नई सूचना प्रौद्योगिकी और वेब तकनीक को देश के बड़े अखबार वालों ने जल्दी अपनाया. आज हम देश-विदेश की कई हिंदी दैनिकों को घर बैठे पढ़ सकते हैं. इनमें
अमर उजाला, अमेरिका की आवाज़ (वायस औफ़ अमेरिका) आगरा न्यूज़ , आज,आज तक , इरान समाचार, उत्तराँचल टाइम्स, एक्सप्रेस न्यूज़, ख़ास ख़बर, जन समाचार(भारतीय व भारतीय ग्रामीण मुद्दों से सम्बन्धित समाचार पत्र), डियूश वेल्ल(जर्मन रेडियो द्वारा प्रसारित हिन्दी कार्यक्रम) पाञ्चजन्य, इंडिया टुडे, डेली हिन्दी मिलाप, द गुजरात, दैनिक जागरण , दैनिक जागरण ई-पेपर , दैनिक भास्कर , नई दुनिया - नव भारत अखबार, नवभारत टाइम्स, पंजाब केसरी, प्रभा साक्षी, प्रभात खबर, राजस्थान पत्रिका, राष्ट्रीय सहारा, रेडियो चाइना ऑन्लाइन, लोकतेज, ताप्तिलोक, प्रभासाक्षी, लोकवार्ता समाचार, विजय द्वार, वेबदुनिया, समाचार ब्यूरो,सरस्वती पत्र (कनाडा का हिन्दी समाचार)सहारा समय, सिफ़ी हिन्दी, सुमनसा ( कई स्रोतों से एकत्रित हिन्दी समाचारों के शीर्षक) हरिभूमि , ग्वालियर टाइम्स, दैनिक मध्यराज, राजमंगल आदि प्रमुख हैं . इस सूची में समाचार एजेंसियों को भी समादृत किया जा सकता है जिनमें प्रमुख है - यूनीवार्ता, पीटीआई भाषा,ई ऍम ऍस इण्डिया (समाचारपत्रों को बहुभाषीय समाचार सेवा प्रदान करने वाला स्थल), आरएनआई (छत्तीसगढ़ से सचांलित समाचार सेवा) आदि .

विश्व की प्रमुखतम आईटी कंपनियाँ भी भाषाई महत्ता के अर्थशास्त्र को भाँपते हुए अब लगातार हिंदी में समाचार पोर्टल का संचालन करने लगे हैं जैसे - याहू, गूगल हिंदी, एमएसएन, रीडिफ़.कॉम, आदि .

जहाँ तक सरकारी समाचार पोर्टल का प्रश्न है उसमें लगभग हिंदी भाषी राज्य सरकारों का एक-एक समाचार केंद्रित साइट संचालित हो रहा है . शासकीय विज्ञप्तियों, योजनाओं, समाचारों वाले इन साइटों का उपयोग भी संदर्भ की तरह किया जाने लगा है . इसमें नवोदित राज्य छत्तीसगढ, उत्तराखंड़, झारखंड भी सम्मिलित हो चुके हैं . यहाँ उन ऑनलाइन समाचार पत्रों जाल स्थलों को जिक्र भी समीचीन होगा जो केंद्र शासन के विभिन्न उपक्रमों द्वारा संचालित हैं . इस रूप में ऑल इंडिया रेडियो की वेबसाइट समाचार भारती, व ऑल इंडिया रेडियो, पत्र सूचना कार्यालय, डी.डी.न्यूजव विदेश मंत्रालय के साइट को देख सकते हैं .
हिंदी के ये ऑनलाइन समाचार पत्र केवल भारतीय महाद्वीप से ही संचालित नहीं होते बल्कि विदेशी ज़मीन से भी ये भारत, भारतवंशियों तथा वैश्विक समचारों से लगातार समूची दुनिया को अपडेट बनाये रखे हुए हैं . इस श्रेणी में प्रमुखतम वेब पोर्टल हैं – लंदन की बी.बी.सी. हिन्दी खबरें

ब्लॉग और ऑनलाइन पत्रकारिता की नई दिशा
इंटरनेट पर ब्लॉग तकनीक के विकास और हिंदी भाषा में काम करने सुविधा से ऑनलाइन पत्रकारिता के नये द्वार खुलते दिखाई दे रहे हैं . अभी उसका स्वरूप निजी लेखन तक सीमित है . यूँ तो ब्लॉग निजी लेखन (अच्छाईयों और बुराईयाँ के साथ भी) का साधन है तथापि जिस तरह से वहाँ पत्रकारिता से जुड़े व्यक्तित्वों और उसके आकांक्षियों का आगमन हो रहा है, एक शुभ संकेत है . हिंदी अंतरजाल को खंगालने से यह बात उभर कर आ रही है कि ब्लॉग स्वतंत्र पत्रकारिता का भी मंच और माध्यम हो सकता है . अंग्रेजी ब्लॉग का इतिहास बताता है कि उस भाषा के महत्वपूर्ण पत्रकार व्यक्तिगत (और सामूहिक तौर पर) पत्रकारिता के लिए ब्लॉग की ओर लगातार उन्मुख होते गये हैं, जा रहे हैं . एक तरह से हिंदी ब्लॉग वैकल्पिक पत्रकारिता का भी जरिया हो सकता है . हिंदी इंटरनेटिंग की दुनिया में इसके चिह्न दिखाई देने लगे हैं . इस संदर्भ में मध्यप्रदेश के उन दो पत्रकारों का प्रयास स्तुत्य है जो 2005 से राजपुत इंडिया (http://rajputaindia.spaces.live.com/)और चंबल की आवाज (http://chambal.spaces.live.com/) नामक समाचार पत्र (आंचलिक) नियमित प्रकाशित कर रहे हैं . इस संभावना को नहीं नकारा जा सकता कि भविष्य में सामुहिक बोध वाले पत्रकार इस सस्ती और विश्वसनीय तकनीक का फायदा उठाकर ऑनलाइन पत्रकारिता का सशक्त माध्यम अवश्य बनाना चाहेंगे. खास तौर पर यह इंटरनेट पर आंचलिक पत्रकारिता का कारगर दिव्य और रोचक प्रकल्प हो सकता है . (देखिए लेखक का शोध आलेख – वेब-पत्रकारिता, ब्लॉग और पत्रकार)


ई-मेल केवल औपचारिक पत्र प्रेषण का माध्यम नहीं हैं, वेबसाइट पर उपलब्ध समूह अनौपचारिक चर्चा-परिचर्चा का साधन नहीं, इन दोनों का योग नियमित समाचार प्रेषण या सीमित पत्रकारिता का भी साधन है. इस तकनीक युग्म से (भले ही सीमित क्षेत्र और संख्या में) सूचनात्मक पत्रकारिता का रोचक अनुप्रयोग भी होने लगा है . लगे हाथ मैं उदाहरण स्वरूप उस समूह का जिक्र करना चाहता हूँ जिसमें 97 लोग आपस में समाचारों के आदान-प्रदान के लिए सक्रिय हैं . गुगल समूह में पंजीकृत इस दल में अधिकांशतः ग्वालियर संभाग (मध्यप्रदेश) से जुड़े समाचार संप्रेषित होते हैं .


हिन्दी दुनिया की तीसरी सर्वाधिक बोली-समझी जाने वाली भाषा है. विश्व में लगभग 80 करोड़ लोग हिन्दी समझते हैं, 50 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं और लगभग 35 करोड़ लोग हिन्दी लिख सकते हैं. उसके हिसाब से हिंदी में पत्रकारितोन्मुख ऑनलाइन पत्र-पत्रिकाओं की संख्या अत्यल्प है . इस तरह से वर्तमान में अंगरेज़ी की प्रभूता के कारण हिंदी में ऑनलाइन पत्रकारिता शिशु अवस्था पर है आने वाले दिनों में वेब पत्रकारिता में अंग्रेज़ी का प्रभुत्व बहुत दिन नहीं रहने वाला है . क्षेत्रीय और स्थानीय भाषा में बन रहे वेब पोर्टलों और वेबसाइटों का प्रभाव बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है और इनका भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है .


पारंपरिक मीडिया और ऑनलाइन पत्रकारिता के बीच की दूरियाँ अब ज्यादा दिन नहीं रहने वाली हैं . डायनामिक फोंट के कारण अब किसी भी ऑनलाइन हिंदी समाचार पत्र को किसी भी कंप्यूटर से पढ़ा जा सकता है . इसके अलावा युनिकोड़ की उपलब्धता से फोंट की समस्या का हल एक तरह से निकाला जा चुका है .


छत्तीसगढ़ और सायबर पत्रकारिता
छत्तीसगढ़ पत्रकारिता की आदि-भूमि की तरह प्रतिबिंबित होता रहा है . यह वही धरती है जहाँ आज से ----- वर्ष पहले माधवराव सप्रे ने पेंड्रा जैसी छोटी-सी जगह से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ नामक अखबार की शुरूआत की थी . वह भी आधुनिक सुविधाओं के अभाव के बीच ट्रेडल मशीन के ज़माने में . कहने को छत्तीसगढ़ से भी प्रकाशित नवभारत, दैनिक भास्कर, और हरिभूमि जैसे बहुमान्य एवं बड़े अखबारों के अंतरजाल संस्करण काफी पहले से थे पर न वे समग्र थे, न उन्हें इंटरनेट पर अधिक पाठक पढ़ते-बांचते थे . इसके पीछे फोंट डाउनलोड़ करने की समस्या और शहरों-कस्बों में इंटरनेट की सुविधा का अभाव भी रहा है . वैसे नेट संस्करण वाले ये अखबार अब भी प्रतिदिन के कुछ ही समाचार(प्रिंट संस्करण में से) पाठकों को उपलब्ध कराते हैं . नेट संस्करणों की लोकप्रियता में वृद्धि नहीं होने में इनका अद्यतन नहीं रहना भी हो सकता है . यद्यपि ऑनलाइन पत्रकारिता में स्थान या भूगोल का कोई महत्व नहीं है तथापि इन्हें राज्य की ऑनलाइन पत्रकारिता में शुमार इसलिए भी नहीं किया जा सकता क्योंकि अन्यत्र से संचालित और नियंत्रित होते रहे हैं . इसी तरह एक साप्ताहिक अखबार डिसेन्ट भी अनियमित रूप से अतंरजाल पर दिखाई देती है जो राज्य का पहला ऑनलाइन समाचार पत्र है . छत्तीसगढ़ में नियमित रूप से वेब-पत्रकारिता का प्रारंभ यदि हम सृजन-सम्मान संस्था की सृजन-गाथा नामक मासिक पत्र से माने तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, जो मई 2007 में पहला जन्म दिवस मनाने जा रही है और जिसके अभियान से छत्तीसगढ़ की 20 से अधिक महत्वपूर्ण कृतियाँ भी अब ऑनलाइन हैं . यद्यपि यह पूर्णतः साहित्यिक एवं सांस्कृतिक पत्र है तथापि वह अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों की रिपोर्टिंग के लिए विश्व के कई देशों में जानी पहचानी जाने लगी है . अब छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होने वाले दो अख़बार देशबन्धु और छत्तीसगढ़ (इतवारी अखबार सहित) भी आनलाइन हो चुके हैं, वैसे छत्तीसगढ़ के इन अखबारों को बाँचने के लिए कंप्यूटर में एक्रोब्रेट रीडर होना जरूरी है क्योंकि यहाँ पठनीय सामग्री पीडीएफ़ में रखी जाती हैं . इसके पहले समाचार एंजेसी राष्ट्रीय न्यूज सर्विस(www.rnsindia.org) ने भी अपना ऑनलाइन कारोबार छत्तीसगढ से प्रारंभ कर दिया है जो घर-बैठे छत्तीसगढ़ सहित देश-विदेश के समाचार सदस्यता शुल्क के साथ उपलब्ध करा रहा है . यहाँ इसी क्रम में सुश्री भूमिका द्विवेदी द्वारा संपादित मीडिया विमर्श(www.mediavimarsh.com) नामक वेबसाइट का उल्लेख करना जरूरी है जो पत्रकारिता के अंदरूनी पहलुओं गंभीर विमर्श करने वाली समूची दुनिया के लिए अंतरजाल पर एकमात्र हिंदी वेबजीन के रूप में समादृत होने लगी है . वैसे तो राज्य के एकमात्र पत्रकारिता विश्वविद्यालय के जाल स्थल में प्रतीकात्मक रूप से कुछ निजी गतिविधियों को भी दिखाया जा रहा है तथापि भविष्य में ऐसे महत्वपूर्ण संस्थान की अनुप्रेरणा से (भले ही अकादमिक रूप से ) प्रयोगात्मक समाचार साइट की अपेक्षा शायद वेब पत्रकारिता को कैरियर बनाने का सपना संजोने वाली भावी पीढ़ी कर रही होगी .


ऑनलाइन पत्रकारिता में क्रियाशील पत्रकार
अब देश के बड़े-बड़े पत्रकार प्रिंट माध्यम के साथ-साथ वेब-मीडिया में भी सक्रिय होते नज़र आने लगे हैं इनमें प्रसिध्द लेखक-पत्रकार खुशवंत सिंह, मशहूर संपादक व मानवाधिकारवादी कुलदीप नायर, पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण नेहरू, पूर्व सांसद व संपादक दीनानाथ मिश्र आदि को गिना सकते हैं जो प्रभासाक्षी में नियमित रूप से कॉलम लिखते हैं . विख्यात हिंदी कार्टूनिस्ट काक भी सतत् रूप से नज़र आते है . इधर जाने माने पत्रकार व नवनीत के संपादक विश्वनाथ सचदेव भी सृजनगाथा डॉट कॉम (जो रायपुर से प्रकाशित होती है) पर नियमित स्तंभ लिखने जा रहे हैं . इस सूची में मुंबई के प्रोफेशनल्स कमल शर्मा से नवोदित राज्य के जागरूक संपादक संजय द्विवेदी को भी जुड़ते देखा जा सकता है . जाने माने दक्षिणपंथी गोविन्दाचार्य जैसे विचारक भी इस मीडिया के प्रभाव से मुक्त नहीं है शायद यही कारण है कि मूल्य आधारित पत्रकारिता के लिए कटिबद्ध उनकी चर्चित पत्रिका भारतीय पक्ष (
www.bhartiyapaksha.com) भी पूर्णतः ऑनलाइन पत्रिका बन चुकी है . इतना ही नहीं उसी गोत्र की अन्य महत्वपूर्ण पत्रिकाएं यथा – लोकमंच से संबंद्ध पत्रकार – अभिताभ त्रिपाठी, शशिसिंह भी स्वयं को निरतंर ऑनलाइन उपस्थित किये हुए हैं . इधर छत्तीसगढ़ के पत्रकार एवं व्यंग्यकार गिरीश पंकज ‘बेताल कथा’ स्तम्भ के माध्यम से लगातार हस्तक्षेप कर रहे हैं . इसी क्रम में संजय द्विवेदी का कॉलम ‘मीडिया विमर्श’ भी काबिल-ए-तारीफ़ बनता जा रहा है . प्रख्यात पत्रकार ओम थानवी की लेखनी भी कल्पना नामक एक साइट में लगातार देखने को मिल रही है यह बात अलग है कि उनकी सक्रियता वेब मीडिया में उतनी नहीं है जितनी की प्रिंट मीडिया में . सुदूर एशिया से जीतेन्द्र चौधरी ऑनलाइन पत्रकारिता की लौ लगातार बनाये हुए हैं अपने ब्लॉग – मेरा पन्ना – नाम से . बालेन्दु शर्मा दधीच ऑनलाइन मीडिया और तकनालाजी के क्षेत्र का जाने-माने हस्ताक्षर हैं जिन्हें प्रभासाक्षी के अलावा वाह मीडिया नामक निजी ब्लॉग में सतत् सक्रिय और मार्गदर्शक रूप में देखा जा सकता है . यह समय की माँग और हिंदी को वैश्विक बनाने की स्वस्थ प्रतियोगिता दबाब ही है जो ऑनलाइन साहित्यिक पत्रकारिता भी अपनी पहचान बनाने लगी है . इस परिप्रेक्ष्य में हम राजेन्द्र अवस्थी, रवीन्द्र कालिया जैसे ख्यातनाम संपादकों को भी शुमार कर सकते हैं जो क्रमशः हंस एवं ज्ञानोदय (एवं सहकारी ब्लॉग लेखन भी) के ऑनलाइन संस्करण में समूचे विश्व में पढ़े जा रहे हैं . यहाँ हम उन पत्रकारों का उल्लेख स्थानाभाव के कारण नहीं कर पा रहे हैं जो किसी न किसी ऐसे ऑनलाइन समाचार पत्र से संबंद्ध है जिसका अपना प्रिंट संस्करण भी बाजार में ज्यादा कारगर रूप में उपलब्ध है .


युनिकोड़ ने बदला वेब-मीडिया का परिदृश्य
वेब मीडिया की लोकप्रियता-ग्राफ़ में गुणात्मक वृद्धि नहीं होने के पीछे अन्य कारणों के साथ फोंट की समस्य़ा भी रही है . शुरूआती दौर में इन अखबारों को पढ़ने के लिए यद्यपि हिंदी के पाठकों को अलग-अलग फ़ॉन्ट की आवश्यकता होती थी जिसे संबंधित अखबार के साइट से उस फ़ॉन्ट विशेष को चंद मिनटों में ही मुफ्त डाउनलोड़ और इंस्टाल करने की भी सुविधा दी जाती थी (गई है) . हिंदी फ़ॉन्ट की जटिल समस्या से हिंदी पाठकों को मुक्त करने के लिए शुरूआती समाधान के रूप में डायनामिक फ़ॉन्ट का भी प्रयोग किया जाता रहा है . डायनामिक फ़ॉन्ट ऐसा फ़ॉन्ट है जिसे उपयोगकर्ता द्वारा डाउनलोड करने की आवश्यकता नहीं होती बल्कि संबंधित जाल-स्थल पर उपयोगकर्ता के पहुँचने से फ़ॉन्ट स्वयंमेव उसके कंप्यूटर में डाउनलोड हो जाता है . यह दीगर बात है कि उपयोगकर्ता उस फ़ॉन्ट में वहाँ टाइप नहीं कर सकता . अब युनिकोड़ित फोंट के विकास से वेब मीडिया में फोंट डाउनलोड़ करने की समस्य़ा लगभग समाप्त हो चुकी है . बड़े वेब पोर्टलों के साथ-साथ सभी वेबसाइट अपनी-अपनी सामग्री युनिकोड़ित हिंदी फोंट में परोसने लगे हैं किन्तु अभी भी अनेक ऐसे साइट हैं जो समय के साथ कदम मिलाकर चलने को तैयार नहीं दिखाई देतीं . दिन प्रतिदिन गतिशील हो रही वेबमीडिया की पाठकीयता (वरिष्ठ पत्रकार संजय द्विवेदी के शब्दों में दर्शनीयता ही सही) को बनाये रखने के लिए पाठक को फोंट डाउनलोड़ करने के लिए अब विवश नहीं किया जा सकता . क्योंकि अब वह विकल्पहीनता का शिकार नहीं रहा . पीड़ीएफ़ में सामग्री उपलब्ध कराना फोंट की समस्या से निजात पाने का सर्वश्रेष्ठ विकल्प या साधन नहीं है . भाषायी ऑनलाइन पत्रकारिता वास्तविक हल तकनीकी विकास से संभव हुआ युनिकोड़ित फोंट ही है जो अब सर्वत्र उपलब्ध है.

हिंदी में तकनीक उपलब्ध
वेब-मीडिया खासकर हिंदी में पत्रकारिता के विकास में मुख्य बाधा हिंदी में तकनीक का अभाव रहा है पर वह भी लगभग अब हल की ओर है . विंडोज तथा लिनक्स जैसे ऑपरेटिंग सिस्टम का इंटरफेस भी हिंदी में बन चुका है . केन्द्रीय सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारत सरकार की इकाई सीडॉक (सेंटर फॉर डवलपमेंट आफ़ एडवांस कंप्यूटिंग) द्वारा एक अरब से भी अधिक बहुभाषी भारतवासियों को एक सूत्र में पिरोने और परस्पर समीप लाने में अहम् भूमिका निभायी जाती रही है . भाषा तकनीक में विकसित उपकरणों को जनसामान्य तक पहुँचाने हेतु बकायदा
www.ildc.gov.in तथा www.ildc.in वेबसाइटों के द्वारा व्यवस्था की गई है जिसके द्वारा टू टाइप हिंदी फ़ॉन्ट(ड्रायवर सहित), ट्रू टाइप फॉन्ट के लिए बहुफॉन्ट की-बोर्ड इंजन, यूनिकोड समर्थित ओपन टाइप फॉन्ट, यूनिकोड समर्थित की-बोर्ड फॉन्ट, कोड परिवर्तक, वर्तनी संशोधक, भारतीय ओपन ऑफिस का हिन्दी भाषा संस्करण, मल्टी प्रोटोकॉल हिंदी मैसेंजर, कोलम्बा - हिन्दी में ई-मेल क्लायंट, हिंदी ओसीआर, अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश, फायर- फॉक्स ब्राउजर, ट्रांसलिटरेशन, हिन्दी एवं अंग्रेजी के लिए आसान टंकण प्रशिक्षक, एकीकृत शब्द-संसाधक, वर्तनी संशोधक और हिंदी पाठ कॉर्पोरा जेसे महत्वपूर्ण उपकरण एवं सेवा मुफ़्त उपलब्ध करायी जा रही है . जहाँ मंत्रालय के वेबसाइट पर लाग आन करके सीडी मुफ़्त में बुलवाई जा सकती है वहाँ इन में से वांछित एप्लीकेशन या सॉफ्टवेयर डाउनलोड भी की जा सकती है .

वेब-पत्रकारिता को अधिमान्यता
वेब-पत्रकारिता के प्रति आम पत्रकारों में रूझान की कमी के पीछे इसमें कार्यरत पत्रकारों को भारत सरकार व राज्य शासनों द्वारा मिलने वाली सुविधाएं एवं मान्यता का अभाव भी था जो अब दूर हो चुका है . अब वेब पत्रकार बाकायदा होंगें अधिमान्य पत्रकार, अनुभवी और लम्बी सेवा देने वालों को भी मिलेगी भारत सरकार की मान्यता . यहाँ मध्यप्रदेश शासन को खासतौर पर साधुवाद दिया जा सकता है जिसने भारत सरकार से कहीं पहले वेब पत्रकारिता को अधिमान्यता की श्रेणी में रख कर मिसाल कायम किया है . भारत सरकार भी अब वेब-पत्रकारिता को मान्यता देने वालों देशों में सम्मिलित हो चुका है . देश में वेब-पत्रकारिता को विकसित बनाने के लिए भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय में इसके लिए पिछले वर्ष (यानी 12 सितम्बर 2006) आवश्यक संशोधन हो चुका है . अब वेब-पत्रकारिता को भी एक्रीडेशन या मान्यता मिल चुका है अर्थात् भारत सरकार द्वारा नियमों के संशोधन के बाद अपनी साधना में लगे वेब पत्रकारों को उनके कार्य में आसानी के साथ ही वह सभी सुविधायें मिलने लगेंगीं जो अन्य मीडिया के राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त पत्रकारों को मिला करतीं थीं ! इस नये संशोधन से वेब पत्रकारिता को एक जिम्मेवारी और शक्ति दोंनों का इकजाया सयोग मिलेगा और अब इण्टरनेट पर अनेक वरिष्ठ व अनुभवी पत्रकार स्वत: ही जगह बनाने का प्रयास करेगें, साथ ही अब उन नौजवानों के लिये भी प्रशस्ति व उल्लेखनीय कार्यों के लिये दरवाजे खुल गये हैं जो पत्रकारिता को कैरियर के रूप में अपनाना चाहते हैं ! सच्चे मायने में भारत उन विशेष देशों में शामिल हो गया है जो वेब पत्रकारों को प्रत्यायन प्रदान करते हैं. भारत सरकार द्वारा वेब पत्रकारों को निम्नांकित शर्तों के आधार पर अधिमान्यता प्रदान किया जा रहा है-

वार्षिक राजस्व के आधार पर अधिमान्य पत्रकारों के कोटा का विवरण

1. 20 लाख से 1 करोड या संपूर्ण वेबसाइट से 2.5 से 5 करोड़ कुल आय - 3 संवाददाता 1 कैमरामैंन

2. 1 करोड़ से 2.5 करोड़ या संपूर्ण वेबसाइट से 5 करोड़ से 7.5 करोड़ कुल आय - 6 संवाददाता 1 कैमरामैंन

3. 2.5 करोड़ से 5 करोड या संपूर्ण वेबसाइट से 7.5 करोड़ से 10 करोड़ कुल आय12 संवाददाता 4 कैमरामैन

4. 5 करोड़ से ऊपर या संपूर्ण वेबसाइट से 1 0 करोड़ या उससे अधिक कुल आय -15 संवाददाता 5 कैमरामैन


मध्यप्रदेश सरकार द्वारा सन् 17 मार्च 2001 से ही जिला, संभाग, राज्य तीनों स्तर पर वेब मीडिया के पत्रकारों को अधिमान्यता प्रदान जा रही है . इसे विडम्बना ही कहा जाना चाहिए कि छत्तीसगढ सहित अन्य सभी राज्यों की अधिमान्यता नीति में वेब पत्रकारिता और पत्रकार के लिए अब तक स्पष्ट प्रावधान नहीं बनाया जा सका है . यह दीगर बात है कि ऐसे राज्य के राजनैतिक आकाओं के इशारे पर अन्य राज्यों के मुख्यालयों से संचालित वेब पत्रकारों और वेबसाइटों को भरपूर विज्ञापन लूटा रहे हैं . भले ही ये राज्य आईटी आधारित नयी वैकासिक नीति का खूब ढिढोरा पीटे जा रहे हो पर ऑनलाइन पत्रकारिता के लिए वहाँ आवश्यक सहयोग संस्कृति विकसित होना अभी शेष है . इसी तारतम्य में एक वाकया का जिक्र (शासन और जनसंपर्क विभाग से क्षमा याचना सहित) करना अराजकता नहीं होगा . छत्तीसगढ राज्य के सर्वाधिक लोकप्रिय वेबसाइटो में से एक और ऑनलाइन पत्रकारिता की शुरूआती दौर की पत्र
www.srijangatha.com के एक कार्यक्रम में माननीय स्वास्थ्य मंत्री ने 5000 रुपयों की घोषणा कर दी किन्तु इस घोषणा के 8 माह बाद भी उस विज्ञापन के दर्शन नहीं हुए हैं . इतना ही नहीं वांछित अभ्यावेदन पर माननीय मुख्यमंत्री की आवश्यक अनुशंसात्मक टीप व जनसंपर्क प्रमुख की अनापत्ति के बावजूद 14 वर्षीय किशोर द्वारा संचालित इस साइट के लिए राजकीय प्रोत्साहन मिलना अब तक शेष है.

बढ़ रहें हैं नेट उपयोगकर्ता

- अभी इंटरनेट की पहुँच बहुत कम है . ऑनलाइन जगत में हिन्दी के पिछड़ने का प्रमुख कारण यह है कि इंटरनेट से जुड़े भारतीय अपने ऑनलाइन कामकाज में अंग्रेजी का प्रयोग करते रहे हैं. हालाँकि भारत में इंटरनेट से जुड़े लोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है और ‘
इंटरनेट विश्व सांख्यिकी’ के ताजा आँकड़े बताते हैं कि भारत में जून, 2006 तक 5 करोड़ 60 लाख इंटरनेट प्रयोक्ता हो चुके हैं और भारत अब अमरीका, चीन और जापान के बाद इंटरनेट से जुड़ी आबादी के मामले में चौथा स्थान हासिल कर चुका है. ब्रॉडबैंड इंटरनेट कनेक्शनों की संख्या भारत में 15 लाख हो चुकी है. भारत में अब हर दो कंप्यूटर प्रयोक्ताओं में से एक इंटरनेट से जुड़ चुका है. इंटरनेट पर हिन्दी के जालस्थलों और चिट्ठों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और ‘जक्स्ट कंसल्ट’ द्वारा जुलाई, 2006 में जारी ऑनलाइन इंडिया के आँकड़ों से पता चलता है कि ऑनलाइन भारतीयों में से 60% अंग्रेजी पाठकों की तुलना में 42% पाठक गैर-अंग्रेजी भारतीय भाषाओं में और 17% पाठक हिन्दी में पढ़ना पसंद करते हैं. हालाँकि पाठकों का यह रुझान ज्यादातर जागरण, बी.बी.सी. हिन्दी और वेबदुनिया जैसे लोकप्रिय हिन्दी वेबसाइटों की तरफ़ ही है, जिन्हें रोजाना लाखों हिट्स मिलते हैं.

कंप्यूटर और लैपटॉप के दाम अभी आम आदमी की पहुँच से काफ़ी अधिक हैं पर वह निरंतर गिरावट की ओर है जो इंटरनेट जर्नलिज्म के मार्ग में आने वाली बाधा का एक हल भी है .


अधिकांश समाचार पोर्टल, समाचार समूह एवं तथा एम.एस.एन, याहू, गूगल जैसी इंटरनेट कंपनियाँ से संबद्ध होती जा रही हैं . भारत का रूझान बताता है कि जैसे-जैसे देश में इंटरनेट कनेक्शन तथा ब्राडबैंड़ तथा वायरलैस कनेक्शन की सुविधा और कंप्यूटर आधारित तकनीकी ज्ञान प्रवीणों की संख्या बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे ऑनलाइन समाचार पत्र-पत्रिका की उपलब्धता और पाठकों की संख्या भी बढ़ती जा रही है . यह प्रभासाक्षी जैसी हिंदी के प्रमुख समाचार-विचार पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम पर होने वाले दैनिक हिट्स की संख्या से भी पता चलता है जो प्रतिदिन तीन लाख से अधिक हो गई है. दो जनवरी 2006 को इस पोर्टल पर तीन लाख एक हजार हिट दर्ज किए गए जो अब लगभग एक करोड़ हिट्स प्रतिमाह की दर जैसे ऐतिहासिक आंकड़ा पार को स्पर्श करने लगी है .


वेब मीडिया का सकारात्मक भविष्य
हिंदी की ऑनलाइन पत्रकारिता का विकास और भविष्य जिन बहुत सारी बातों पर निर्भर करता है उनमें इंटरनेट की पहुँच, बिजली की निरंतरता और सर्वव्यापकता, सॉफ्टवेयर केंद्रित तकनीकी ज्ञान और सुविधा . यूँ तो Windows XP के आ जाने से हिंदी सहित 9 भारतीय भाषाओं में काम करने की समस्या समाप्त प्रायः है तथापि रूढ़गत प्रवृति एवं क्रयशक्ति पतली होने के कारण अभी भी अधिकांश कंप्यूटर उपभोक्ता Window 98 से अपना पिंड नहीं छूड़ा पा रहे हैं जो हिंदी भाषा सहित प्रकारांतर से ऑनलाइन पत्रकारिता के लिए भी एक बड़ी बाधा है . जो भी हो निम्नांकित प्रयासों को इस दिशा में कारगर और उन्नत भविष्य का संकेत माना जा सकता है-


एडोब और माइक्रोसाफ्ट द्वारा टू टाइफ़ फोंट विकसित किया है जो मुफ़्त उपलब्ध है. माइक्रोसॉफ्ट द्वारा विकसित युनिकोड़ित फोंट मंगल से फोंट की समस्या लगभग हल चुकी है . स्पैलिंग चेक करने वाला सॉफ्टवेयर, शब्दकोश एवं थिसॉरस, आदि की उपलब्धता के लिए सी डैक, आईआईटी मुम्बई और मैसुर लगातार सक्रिय है जो भविष्य में उपलब्ध होने लगेगी . गूगल, एमसएन लाइव, याहू, और रेडिफ़ सहित गुरू, रफ्तार आदि के सर्च इंजन हिंदी में विकसित हो जाने से हिंदी खोजने की समस्या हलशुदा है . वेब आधारित कंपनियाँ जैसे दृष्टि, ताराहाथ, आईटीसी ई-चौपाल लगातार ग्राणीण क्षेत्रों में पृथक इंटरनेट सुविधा उपलब्ध कराने हेतु कटिबद्ध है . विकिपीडिया का हिंदी वर्जन भी हिंदी सहित हिंदी पत्रकारिता को गति देने लगी है. हाल ही में ग्रामीण क्षेत्रों में ब्रॉडबैंड सेवा की उपलब्धता बढ़ाने के लिए केंद्र शासन द्वारा जो सब्सड़ी योजना की घोषणा भी की गई है वह ग्रामीण क्षेत्रों में ऑनलाइन पत्रों के लिए कारगर सिद्ध होने वाला है . आईटी मंत्रालय भारत सरकार द्वारा मुफ्त वितरित सीड़ी से भी हिंदी सहित भारतीय भाषाओं में काम करने की सुविधा बढ़ रही है . विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा ई-गवर्नैंस और माध्यमिक स्तर से सूचना तकनीक केंद्रित पाठ्यक्रमों के सचांलन से भविष्य की दिशायें धवल दिखाई देती हैं . फ्रंटपेज आदि वेब-डिजायनिंग सॉफ्टवेयरों के मंहगे होने के कारण साधारण आय वाले पत्रकारों को वेबसाइट संचालन जरूर मँहगा पड़ रहा है किन्तु ओपर सोर्स के खुलते द्वार कुछ राहत नज़र आने लगा है . ज्ञातव्य हो कि जुमला ओपन सोर्स दुनिया का ऐसा मुफ्त सॉफ्टवेयर है जिस पर निर्मित पोर्टल या वेबसाइट अधिक रोचक और कारगर होने लगा है . इसी तरह कई ऐसे सॉफ्टवेयर ओपन सोर्सिंग से डाउनलोड किया जा सकता है ऑनलाइन पत्रकारिता के लिए आवश्यक या वांछित हैं . वेब डियाजनरों की बढ़ती संख्या को भी हम वेब मीडिया के लिए सकारात्मक मान सकते हैं . इसके अलावा भारत के कई विश्वविद्यालयों और शिक्षा प्रतिष्टानों में ऑनलाइन पत्रकारिता पाठ्यक्रमों का जिस गति से विकास हो रहा है उसे देखकर वेब मीडिया का भविष्य संतोषप्रद कहा जा सकता है

Wednesday, August 26, 2009

धारा 377

2 जुलाई 2009 दिल्ली हाईकोर्ट नें समलैंगिक संबंधों को लेकर सालों से चले
आ रहे बवाल पर कानूनी मोहर लगाते हुए ऐतिहासिक फैसला सुनाया. कोर्ट नें
समलैंगिक संबंधों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 से बाहर माना है.
कोर्ट का कहना हैं कि समलैंगिकों पर धारा 377 के तहत कार्यवाही करना
भारत के प्रत्येक नागरिक को संविधान की धारा 14, 15 और 21 द्वारा दिए गए
मौलिक अधिकारों का हनन है. अब सवाल उठता है की आईपीसी की धारा 377 क्या
है, इस धारा के तहत किसी भी व्यक्ति( स्त्री या पुरुष) के साथ
अप्राकृतिक यौन संबध बनाने पर या किसी जानवर के साथ यौन संबंध बनाने पर
उम्र कैद या 10 साल की सजा व जुर्मानें का प्रावधान है. जिससे कि बहुतेरे
समलैंगिक जोड़ो (विशेषकर पुरुषों) को प्रताड़ना झेलनी पड़ती थी.
गैरकानूनी होनें की वजह से इन जोड़ों के साथ रह कर जीवन-यापन करनें को
समाज और प्रशासन गलत मानता रहा है. हालांकि अब भी यह कहना मुश्किल होगा
कि प्यार के इस रूप को समाज स्वीकार करता है या नहीं लेकिन कानून तो अब
प्यार और विश्वास के इस अनूठे संगम में अवरोध नहीं बन सकता. क्योंकि
कानून के मुताबिक इस धारा (377) के तहत ही समलैंगिकों की इस अभिव्यक्ति पर
विराम लगा था. कुछ थे जो खुलकर अपनें समलैंगिक होनें की बात को स्वीकार
करते लेकिन कानूनी दांव पेंच के आगे वे भी हाथ उठा लेते. समलैंगिकों के
अधिकारों के लिए समय-समय पर कई गैर सरकारी संगठन आगे आए और काफी हद उनके
अधिकारों की लड़ाई लड़ी गई. और आज ऐसे ही एक गैर सरकारी संगठन "नाज़
फाउंडेशन" की मुहिम रगं लाई औऱ कोर्ट को ये मानना पड़ा कि 1860 में बनीं
धारा 377 को वास्तविक परिवेश में केवल नाबालिग के साथ अप्राकृतिक यौन
संबंध बनानें और जानवरों के साथ यौन संबध बनानें के लिए ही उचित समझा
जाए, एक लिंग के दो व्यक्ति जो कि बालिग हो अपनी मर्जी से साथ रह सकते
हैं. अब सवाल आता है विरोध औऱ मान्यता का? विरोध तो कल भी हुआ था औऱ आगे
भी होगा, क्योकिं कानूनी मान्यता के आधार पर भी भारत में ऐसे संगठनों की
कमी नहीं है जो खुद को भारतीय संस्कृति के पैरोकार मानते हैं औऱ खुद आज
तक पता नहीं कितनी बार कानून की धज्जियां उड़ा चुके हैं. ऐसे संगठन है जो
यह जानते हैं कि देश का संविधान हमें धर्म लिगं, क्षेत्र, जाति के नाम
पर अलग नहीं करता हैं, जो जनाते है कि देश धर्मनिरपेक्ष है लेकिन फिर भी
किसी मस्जिद-गिरजाघर को तोड़ देते हैं, जो ट्रेन जला देते हैं, जो अपनें
ही देश में रोटी कमानें-खानें के लिए आए मज़दूरों को सड़क पर दौड़ा-दौड़ा
कर पीटते है, जो सदियों से सामंतवाद और जातिवाद की चोट से ग्रस्त लोगों
के घरों में आग लगा कर उनसे जीनें के अधिकार को भी छीन लेना चाहते हैं,
जो किसी महिला को मजबूर कर देते हैं कि वह अपनें हक़ के लिए बंदूक उठा ले
और डाकू फूलन देवी बन जाए...ये तो बानगी भी नहीं है दोस्तों...ऐसा देस
है मेरा!
अब देखते हैं कि समाज के इस नए पहलू को किन-किन प्रतिक्रियाओं से गुजराना
होगा, क्या ऐसे समाज से आप आशा करते हैं कि वो इस सब पर खुलकर सामनें
आएगा और इसे स्वीकार करेगा, कानून आपनी जगह सही हो सकता है. नैतिकता के
माएनें लेकिन खुद ही सीखनें होते हैं. मैनें आपको बता दिया है कि किस
प्रकार कानून का अमल किया गया है इस देश में. न्याय प्रक्रिया तक बात को
पहुचानें के लिए भी तो आवाज चाहिए औऱ आवाज के माध्यम किसके पास है और वे
किस सोच से इत्तीफ़ाक़ रखते हैं ये भी मायनें रखता है. आज देश में हमारे
पत्रकारों की सोच सभी विषयों पर उदारवादी दिखती है कुछ संघी पत्रकारों को
छोड़कर, लेकिन क्या इस विषय पर कोई पत्रकार सही और गलत परिभाषित करेगा?
क्या कोई पत्रकार समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दिलानें की मांग को सही
ठहाराऐगा ? मैनें देखा कि ब्लॉग पर भी लोग इस विषय पर कुछ लिखनें से डर
रहे है, और जो लिख रहे है वो केवल कोर्ट के फैसले की पुष्टि भर के लिए
अपनी उदारवादी सोच की उपस्थिति भर दर्शा रहे हैं. शायद उन्हें भी डर है
कि कहीं जब हम कोई धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो लोग समझ लेते हैं
कि हम कम्यूनिस्ट या कांग्रेसी है उसी प्रकार यदि हम इस विषय पर लिखे तो
शायद हमें भी लोग इसी श्रेणी में ले आएंगे. खैर ये तो सोच है अपनी-अपनी
लेकिन सोच संवैधानिक हो ये संभव नहीं? एक सोच का वर्णन तो मैनें इस लेख
में कर ही दिया है . अब देखना है कि यही समाज इस नए नियम को किस प्रकार
लेता है, देखना दिलचस्प होगा, वैसे उम्मीद तो वही है (विरोध) जो कि पहले
बताया गया है . लेकिन अब मामला ये देखना पड़ेगा की यहां पर कोई क्षेत्र,
जाति, धर्म, बोली-भाषा, अमीरी-गरीबी का दंश जो भारतीय समाज में प्यार के
आड़े आता रहा है, शायद वो केवल ये माननें भर से कम हो जाए कि लिंग तो
समान नहीं है ना, बाकि सारी विषमताएं एक मान ली जाएंगी शायद...

भारत में नक्सलवाद

नक्सलवाद कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्यूनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ. नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 मे सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की थी. मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और परिणामस्वरूप कृषितंत्र पर दबदबा हो गया है और यह सिर्फ़ सशस्त्र क्रांति से ही खत्म किया जा सकता है. 1967 में "नक्सलवादियों" ने कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से अलग हो गये और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी. 1971 के आंतरिक विद्रोह (जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की मृत्यु के बाद इस आंदोलन की बहुत सी शाखाएँ हो गयीं और आपस में प्रतिद्वंदिता भी करने लगीं. आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गयी हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेती हैं. लेकिन बहुत से संगठन अब भी छद्म लड़ाई में लगे हुए हैं. नक्सलवाद की सबसे बड़ी मार आँध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को झेलनी पड़ रही है.

Saturday, August 15, 2009

प्रेमचंद की विरासत है असाली विरासत

<span title=प्रेमचंद">
उर्दू और हिंदी दोनों भाषाओं पर ज़बरदस्त पकड़ थी प्रेमचंद की
प्रेमचंद अपनी कला के शिखर पर बहुत तज़ुर्बे करने के बाद पहुँचे. उनके सामने कोई मॉडल नहीं था सिवाय बांग्ला साहित्य के. बंकिम बाबू थे, शरतचंद्र थे और इसके अलावा टॉलस्टॉय जैसे रुसी साहित्यकार थे. लेकिन होते-होते उन्होंने गोदान जैसा जो मास्टरपीस दिया, मैं समझता हूँ कि वह एक मॉर्डन क्लासिक है.

जब हमारा स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था तब उन्होंने जो डिस्कोर्स कथा साहित्य द्वारा हिंदी और उर्दू दोनों को दिया उसने सियासी सरगर्मी को, जोश को और आंदोलन को सभी को उभारा और उसे ताक़तवर बनाया. और इससे उनका लेखन भी ताक़तवर होता है.

देखा जाए तो भारतीय साहित्य का बहुत सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा चाहे वह दलित साहित्य हो या नारी साहित्य उसकी जड़ें कहीं गहरे प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई देती हैं. प्रेमचंद के पात्र सारे के सारे वो हैं जो कुचले, पिसे और दुख का बोझ सहते हुए हैं. प्रेमचंद के साहित्य में पहली बार किसान मिलता है. भारतीय किसान, जो खेत के मेंड़ पर खड़ा हुआ है, उसके हाथ में कुदाल है और वह पानी लगा रहा है. तपती दोपहरी या कड़कते जाड़े में वह मेहनत करता है और कर्ज़ उतारने की कोशिश करता रहता है.

ग़ुरबत या ग़रीबी की जो विडंबना, उनका दुख दर्द प्रेमचंद जिस तरह बयान करते हैं वह कहीं और नहीं मिलता. मुझे 'पूस की रात' की कथा याद आती है.

और 'शतरंज के खिलाड़ी' याद आता है. लगता है कि उनकी नज़र कितनी गहरी थी. वो भारतीय इतिहास के कई बरसों को एक कहानी में किस ख़ूबी के साथ लकड़ी के मोहरों के सहारे से कह देते हैं.

'वो एक' कहानी में परत दर परत खुलती है. 'कफ़न' में कफ़न एक नहीं है दो हैं. एक तो वो है जिसके पैसे से माधो और घीसू ने शराब पी ली और दूसरा कफ़न वो है जिसे वो बच्चा ओढ़ कर सो गया जो अपनी ग़रीब माँ के पेट में था. इस पीड़ा को प्रेमचंद जिस तरह उभारते हैं वो कहीं और नहीं है.

वो गाँव और शहर के बीच जो दो दूरियाँ थीं उसे देखते थे. मैं तो कहता हूँ कि प्रेमचंद के यहाँ भारत की आत्मा बसती है.

बदला हुआ समय

प्रेमचंद ने जो एक गुज़रगाह बनाई थी हिंदी और उर्दू कथा साहित्य में उससे होकर बहुत से लोग आगे बढ़े. प्रगतिशील साहित्य में देखें तो मंटो, कृश्न चंदर, राजेंदर सिंह बेदी, इस्मत चुगताई ये सब वजूद में नहीं आ सकते थे अगर प्रेमचंद नहीं होते.

पहले तो आसान था कि ज़ुल्म करने वाला बाहर का साम्राज्य था लेकिन बाद की समस्या तो यह है कि ज़ालिम भी हमारे यहाँ है और मज़लूम भी हमारे यहाँ ही है, तो समस्याएँ गंभीर हो जाती हैं

इसके बाद का जो समय है वह नई तकनीकों का दौर है नई समस्याओं का दौर है. प्रेमचंद जिस आदर्श को लेकर चले थे उसमें गाँधीवाद था तो मार्क्सवाद भी था. लेकिन आज़ादी के बाद जिस तरह हमारे ख़्वाब टूटे हैं और जिस तरह हम नई समस्याओं से दो चार हुए हैं, उससे चीज़ें बदली हैं.

पहले तो आसान था कि ज़ुल्म करने वाला बाहर का साम्राज्य था लेकिन बाद की समस्या तो यह है कि ज़ालिम भी हमारे यहाँ है और मज़लूम भी हमारे यहाँ ही है, तो समस्याएँ गंभीर हो जाती हैं.

इसके बाद आधुनिकतावाद है, नव मार्क्सवाद है और बहुत सी नई समस्याएँ भी हैं. लेकिन अगर आप नव मार्क्सवाद को देखेंगे, आप दलितवाद को देखेंगे या आप नारीवाद को देखेंगे तो भी आपको प्रेमचंद के पास जाना पड़ेगा. मैं कहता हूँ कि वह एक सरचश्मा है, उससे नज़र हटाकर हम अपने आपको पहचान नहीं सकते.

भाषा की परंपरा

हिंदी और उर्दू दोनों बड़ी भाषाएँ हैं. आज भी बहुत से लेखक हैं जो दोनों ही भाषाओं में अधिकार पूर्वक लिखते हैं. यह कहना आसान है कि अंग्रेज़ों ने फूट डालो और राज करो की नीति का पालन किया लेकिन फूट का बीज तो हमारे बीच ही था.

लेकिन ये थोड़े दिनों की बात है. भारत एक गणतंत्र है और एक धर्मनिरपेक्ष देश है तो इसमें कोई शक नहीं कि दोनों भाषाएँ एक होंगी. मैं कहता हूँ हिंदी वालों और उर्दू वालों दोनों से, कि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों भाषाएँ एक हैं और ये दोनों इसके दो बड़े साहित्यिक रुप हैं. दो परंपराएँ हैं.

आख़िर जो बँटवारा हुआ और जिन बुनियादों पर हुआ है उसके बाद न सिर्फ़ राजनीति का सांप्रदायिकरण हुआ है बल्कि भाषा का भी सांप्रदायिकरण हुआ है. कोई नहीं पूछता कि मलयालम हिंदू की भाषा है या मुस्लिम की, मराठी किसकी भाषा है, लेकिन उर्दू को अलग करके खड़ा कर दिया गया है. उसका सांप्रदायिकरण कर दिया गया. इन सबकी वजह से हम प्रेमचंद की साँझी विरासत को पहचान नहीं पाते.

लेकिन ये थोड़े दिनों की बात है. भारत एक गणतंत्र है और एक धर्मनिरपेक्ष देश है तो इसमें कोई शक नहीं कि दोनों भाषाएँ एक होंगी. मैं कहता हूँ हिंदी वालों और उर्दू वालों दोनों से कि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों भाषाएँ एक हैं और ये दोनों इसके दो बड़े साहित्यिक रुप हैं. दो परंपराएँ हैं. चुनांचे आज भी ग़ालिब हों, फ़ैज़ हों, फ़राज़ हों, इस्मत हों सब नागरी में भी पढ़े जाते हैं और इसी तरह हिंदी के बड़े दिग्गज उर्दू में पढ़े जाते हैं. अभी निर्मल वर्मा की एक किताब कराची से छपकर आई है.

जो हौसला प्रेमचंद में था अगर उसका एक हिस्सा भी आज के लेखकों में पैदा हो जाए तो जो समस्याएँ हमें आज दो बड़ी भाषाओं के बीच मिलती हैं, जो अब दक्षिण एशिया की बड़ी भाषा है, वो ख़त्म हो जाएँगी. दरअसल हमारा जो 'लिंगुआ फ़्रैंक्वा' है वह तो हिंदुस्तानी है और उसके सबसे ब़ड़े हिमायती प्रेमचंद थे और गाँधी जिसके पक्षधर थे.

मैं मानता हूँ कि सपने ज़ाए नहीं होते. दोनों भाषाएँ मिलकर काम करेंगीं. जो घाव राजनीति लगाती है वो वक़्ती होते हैं, इंसानियत बहुत बड़ी ताक़त है.

मुझे लगता है कि जो प्रेमचंद की विरासत है, वही भारत की असली विरासत है.



Flu (influenza)

Flu (influenza)

Dr Rob Hicks

Flu is a viral infection that's most common during the winter months. It has a sudden onset of symptoms, which include fever, sore throat and muscle aches.


What is Flu (influenza)?

Influenza, more commonly known as flu, is a viral infection caused by the influenza virus. It's passed on when people breathe in liquid droplets containing the virus that have been sneezed or coughed into the air, or when people touch objects contaminated with the virus.

Possible complications include pneumonia, which often needs hospital treatment. It can be fatal.

The virus can cause infections all year round, but it's most common in the winter. Anyone can get flu and the more close contact a person has with people who have the virus, the more likely they are to get it.

Should I get vaccinated?

The UK has a safe and effective vaccination against flu, which is provided free by the NHS. It's recommended for people at greatest risk of harm from the flu virus.

People who are advised to have a flu vaccination include:

  • Everyone over the age of 65
  • Everyone aged six months or over who has lung disease (such as asthma), heart disease, kidney disease, liver disease, diabetes or lowered immunity
  • Anyone living in a residential or nursing home
  • People caring for those at risk of flu complications

Those most at risk are advised to have a vaccination every year. This is because the flu virus changes slightly every year. Scientists work hard to predict the strains of flu virus and develop vaccines against them.

Despite popular belief, flu vaccination can't give someone flu as it doesn't contain the active virus. It's true some people experience symptoms of a heavy cold at the same time or just after they've had the flu jab. This is simply a coincidence and the symptoms are usually caused by one of the many common cold viruses around in autumn and winter.

Remember, it's still possible to catch heavy colds after vaccination, as the flu jab only protects people from the flu virus, not other viruses.

The flu vaccination is ususally available from around October each year. Anyone who thinks they need it should talk to their GP or practice nurse.

Reducing your risk

The best way to avoid getting flu is to strengthen your immune system by eating a healthy diet, taking regular exercise, getting enough rest and relaxation, and not smoking.

You should also avoid people who are coughing and sneezing, especially if they're not covering their mouth and nose.

How can I tell if it's a cold or flu?

Flu strikes suddenly and affects the whole body. One minute you're happy at work, the next you've been knocked for six and are too ill to do anything. It lasts for about seven days and generally leaves you feeling exhausted for weeks after wards.

It's different from the common cold, in which the symptoms tend to come on gradually, usually affecting only the nose, throat, sinuses and upper chest. When someone has a cold, they're still able to get about and usually recover fully after about a week.

What's the treatment?

These are the best ways to treat the symptoms of flu:

  • Take plenty of rest because the body uses a lot of energy fighting infections
  • Keep warm
  • Make sure you drink plenty of water to avoid dehydration
  • Take paracetamol or anti-inflammatory medicines such as ibuprofen to lower a high temperature and relieve headaches and muscles aches
  • Drink hot water with lemon, ginger and honey

Antibiotics are no use to treat flu because it's caused by a virus

Antibiotics are no use to treat flu because it's caused by a virus. Specific antiviral treatments for flu are available, but generally these are only given to those at high risk of flu complications.

Advice on suitable remedies is available from your local pharmacist. Always contact your doctor if you're not getting better after a few days, if you're unduly short of breath or if you're coughing up blood or large amounts of yellow or green phlegm.

This article was last medically reviewed by Dr Rob Hicks in April 2008

स्वाइन फ़्लू पर विशेष

स्वाइन फ़्लू क्या है?

इंफ़्लुएंज़ा-A( H1 N1) को आम बोलचाल की भाषा में स्वाइन फ़्लू कहा जाता है.

स्वाइन फ्लू के शुरूआती मामले अब से करीब दो महीने पहले मैक्सिको में सामने आए थे. तब से अब तक लगभग सौ देशों में इस संक्रमण ने लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है.

प्रयोगशाला में किए गए परीक्षणों से पता चला कि इस वायरस के जींस उत्तरी अमरीका के सूअरों में पाए जाने वाले जींस जैसे हैं इसलिए इसे स्वाइन फ़्लू कहा जाने लगा.

वैज्ञानिक भाषा में इस वायरस को इंफ़्लुएंज़ा-ए (एच1 एन1) कहा जाता है.

कैसे फैलता है स्वाइन फ़्लू?

शुरुआत में ये माना जा रहा था कि इसके संक्रमण में सूअरों की भूमिका होती है.

लेकिन बाद में पाया गया है कि ये इंसान से दूसरे इंसान के संपर्क में आने से फैलता है.

स्वाइन फ़्लू के लक्षण क्या हैं?

इसके लक्षण आम फ़्लू से मिलते जुलते ही हैं इसलिए इसकी पहचान खून की जाँच से ही संभव है.

वैसे इसके प्रमुख लक्षण हैं- सिर में दर्द, बुखार, गले में खराश, खांसी, बदन में दर्द, सांस लेने में दिक्कत.

वैज्ञानिकों को चिंता सता रही है कि भारत सहित जिन देशों में आजकल आम फ़्लू का सीज़न चल रहा है उसके वायरस के साथ मिलकर एच1एन1 परेशानी पैदा कर सकता है.

इसके गंभीर संक्रमण के कारण शरीर के कई अंग काम करना बंद कर सकते हैं जिसके कारण मौत भी हो सकती है.

क्या इसका इलाज संभव है?

कुछ हद तक इसका इलाज संभव है. इसके मरीज़ों का उपचार टैमीफ़्लू नामक वायरसरोधी दवा से किया जा सकता है.

डॉक्टरों के अनुसार ये दवा इस फ़्लू को रोक तो नही सकतीं पर इसके ख़तरनाक असर को कम ज़रूर कर सकती है.

डॉक्टरों का कहना है कि इस समय वायरस इतना कमज़ोर है कि ज़्यादातर लोग बिना किसी दवा के उससे उबर जाते हैं.

इसके बचाव के क्या उपाय हैं?

स्वाइन प़्लू से बचने का सबसे अच्छा तरीका स्वच्छता के नियमों का पालन करना है.

भीड़-भाड़ वाली जगहों या सार्वजनिक स्थानों पर जाने से बचें, खांसते और छींकते वक्त मुंह और नाक को रूमाल या कपड़े से ढंकें.

फ्ल़ू प्रभावित व्यक्ति से दूरी बनाकर रखें और सार्वजनिक स्थानों पर जाने पर तीनस्तरीय मास्क लगाएँ.

क्या इसका टीका उपलब्ध है?

स्वाइन फ़्लू को रोकने के लिए अभी तक कोई टीका नहीं विकसित हो पाया है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने घोषणा की है कि सितंबर से स्वाइन फ़्लू का टीका आम लोगों को उपलब्ध हो सकेगा.

कई दवा निर्माता कंपनियों ने एच1एन1 टीका तैयार किया है और कई देशों में इसका परीक्षण चल रहा है.