Wednesday, August 26, 2009

धारा 377

2 जुलाई 2009 दिल्ली हाईकोर्ट नें समलैंगिक संबंधों को लेकर सालों से चले
आ रहे बवाल पर कानूनी मोहर लगाते हुए ऐतिहासिक फैसला सुनाया. कोर्ट नें
समलैंगिक संबंधों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 से बाहर माना है.
कोर्ट का कहना हैं कि समलैंगिकों पर धारा 377 के तहत कार्यवाही करना
भारत के प्रत्येक नागरिक को संविधान की धारा 14, 15 और 21 द्वारा दिए गए
मौलिक अधिकारों का हनन है. अब सवाल उठता है की आईपीसी की धारा 377 क्या
है, इस धारा के तहत किसी भी व्यक्ति( स्त्री या पुरुष) के साथ
अप्राकृतिक यौन संबध बनाने पर या किसी जानवर के साथ यौन संबंध बनाने पर
उम्र कैद या 10 साल की सजा व जुर्मानें का प्रावधान है. जिससे कि बहुतेरे
समलैंगिक जोड़ो (विशेषकर पुरुषों) को प्रताड़ना झेलनी पड़ती थी.
गैरकानूनी होनें की वजह से इन जोड़ों के साथ रह कर जीवन-यापन करनें को
समाज और प्रशासन गलत मानता रहा है. हालांकि अब भी यह कहना मुश्किल होगा
कि प्यार के इस रूप को समाज स्वीकार करता है या नहीं लेकिन कानून तो अब
प्यार और विश्वास के इस अनूठे संगम में अवरोध नहीं बन सकता. क्योंकि
कानून के मुताबिक इस धारा (377) के तहत ही समलैंगिकों की इस अभिव्यक्ति पर
विराम लगा था. कुछ थे जो खुलकर अपनें समलैंगिक होनें की बात को स्वीकार
करते लेकिन कानूनी दांव पेंच के आगे वे भी हाथ उठा लेते. समलैंगिकों के
अधिकारों के लिए समय-समय पर कई गैर सरकारी संगठन आगे आए और काफी हद उनके
अधिकारों की लड़ाई लड़ी गई. और आज ऐसे ही एक गैर सरकारी संगठन "नाज़
फाउंडेशन" की मुहिम रगं लाई औऱ कोर्ट को ये मानना पड़ा कि 1860 में बनीं
धारा 377 को वास्तविक परिवेश में केवल नाबालिग के साथ अप्राकृतिक यौन
संबंध बनानें और जानवरों के साथ यौन संबध बनानें के लिए ही उचित समझा
जाए, एक लिंग के दो व्यक्ति जो कि बालिग हो अपनी मर्जी से साथ रह सकते
हैं. अब सवाल आता है विरोध औऱ मान्यता का? विरोध तो कल भी हुआ था औऱ आगे
भी होगा, क्योकिं कानूनी मान्यता के आधार पर भी भारत में ऐसे संगठनों की
कमी नहीं है जो खुद को भारतीय संस्कृति के पैरोकार मानते हैं औऱ खुद आज
तक पता नहीं कितनी बार कानून की धज्जियां उड़ा चुके हैं. ऐसे संगठन है जो
यह जानते हैं कि देश का संविधान हमें धर्म लिगं, क्षेत्र, जाति के नाम
पर अलग नहीं करता हैं, जो जनाते है कि देश धर्मनिरपेक्ष है लेकिन फिर भी
किसी मस्जिद-गिरजाघर को तोड़ देते हैं, जो ट्रेन जला देते हैं, जो अपनें
ही देश में रोटी कमानें-खानें के लिए आए मज़दूरों को सड़क पर दौड़ा-दौड़ा
कर पीटते है, जो सदियों से सामंतवाद और जातिवाद की चोट से ग्रस्त लोगों
के घरों में आग लगा कर उनसे जीनें के अधिकार को भी छीन लेना चाहते हैं,
जो किसी महिला को मजबूर कर देते हैं कि वह अपनें हक़ के लिए बंदूक उठा ले
और डाकू फूलन देवी बन जाए...ये तो बानगी भी नहीं है दोस्तों...ऐसा देस
है मेरा!
अब देखते हैं कि समाज के इस नए पहलू को किन-किन प्रतिक्रियाओं से गुजराना
होगा, क्या ऐसे समाज से आप आशा करते हैं कि वो इस सब पर खुलकर सामनें
आएगा और इसे स्वीकार करेगा, कानून आपनी जगह सही हो सकता है. नैतिकता के
माएनें लेकिन खुद ही सीखनें होते हैं. मैनें आपको बता दिया है कि किस
प्रकार कानून का अमल किया गया है इस देश में. न्याय प्रक्रिया तक बात को
पहुचानें के लिए भी तो आवाज चाहिए औऱ आवाज के माध्यम किसके पास है और वे
किस सोच से इत्तीफ़ाक़ रखते हैं ये भी मायनें रखता है. आज देश में हमारे
पत्रकारों की सोच सभी विषयों पर उदारवादी दिखती है कुछ संघी पत्रकारों को
छोड़कर, लेकिन क्या इस विषय पर कोई पत्रकार सही और गलत परिभाषित करेगा?
क्या कोई पत्रकार समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दिलानें की मांग को सही
ठहाराऐगा ? मैनें देखा कि ब्लॉग पर भी लोग इस विषय पर कुछ लिखनें से डर
रहे है, और जो लिख रहे है वो केवल कोर्ट के फैसले की पुष्टि भर के लिए
अपनी उदारवादी सोच की उपस्थिति भर दर्शा रहे हैं. शायद उन्हें भी डर है
कि कहीं जब हम कोई धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो लोग समझ लेते हैं
कि हम कम्यूनिस्ट या कांग्रेसी है उसी प्रकार यदि हम इस विषय पर लिखे तो
शायद हमें भी लोग इसी श्रेणी में ले आएंगे. खैर ये तो सोच है अपनी-अपनी
लेकिन सोच संवैधानिक हो ये संभव नहीं? एक सोच का वर्णन तो मैनें इस लेख
में कर ही दिया है . अब देखना है कि यही समाज इस नए नियम को किस प्रकार
लेता है, देखना दिलचस्प होगा, वैसे उम्मीद तो वही है (विरोध) जो कि पहले
बताया गया है . लेकिन अब मामला ये देखना पड़ेगा की यहां पर कोई क्षेत्र,
जाति, धर्म, बोली-भाषा, अमीरी-गरीबी का दंश जो भारतीय समाज में प्यार के
आड़े आता रहा है, शायद वो केवल ये माननें भर से कम हो जाए कि लिंग तो
समान नहीं है ना, बाकि सारी विषमताएं एक मान ली जाएंगी शायद...

भारत में नक्सलवाद

नक्सलवाद कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्यूनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ. नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 मे सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की थी. मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और परिणामस्वरूप कृषितंत्र पर दबदबा हो गया है और यह सिर्फ़ सशस्त्र क्रांति से ही खत्म किया जा सकता है. 1967 में "नक्सलवादियों" ने कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से अलग हो गये और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी. 1971 के आंतरिक विद्रोह (जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की मृत्यु के बाद इस आंदोलन की बहुत सी शाखाएँ हो गयीं और आपस में प्रतिद्वंदिता भी करने लगीं. आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गयी हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेती हैं. लेकिन बहुत से संगठन अब भी छद्म लड़ाई में लगे हुए हैं. नक्सलवाद की सबसे बड़ी मार आँध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को झेलनी पड़ रही है.